- 427 Posts
- 594 Comments
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में भाजपा-शिवसेना और कांग्रेस-एनसीपी में सियासी गठजोड़ में सीटों के बंटवारे को लेकर रार थमने का नाम नहीं ले रही है। हैरत की बात है कि महाराष्ट्र में 288 विधानसभा सीटों के लिए मतदान 15 अक्टूबर को होना है और किस्मत का फैसला 19 अक्टूबर को होगा, लेकिन भाजपा-शिवसेना और सत्तधारी कांग्रेस-एनसीपी गंठबंधन के नेताओं की जिद और आचरण से तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो जनादेश उनके पक्ष में आ चुका है। ये जीत का अति विश्वास है या फिर कुछ और ये तो भाजपा-शिवसेना और एनसीपी-कांग्रेस के नेता ही जानें, लेकिन सीटों के बंटवारे को लेकर किसी भी हद तक जाने को तैयार इन सियासी सूरमाओं को नहीं भूलना चाहिए कि महाराष्ट्र की जनता इस सियासी नौटंकी को बखूबी देख और समझ भी रही है। (जरूर पढ़ें – महाराष्ट्र – कायम रहेगा याराना !)
सीटों पर समझौता न होने की स्थिति में अकेले सभी 288 विधानसभा सीटों पर लड़ने और अपनी-अपनी जीत के प्रति आश्वस्त दिखाई दे रहे ये नेता दावा कर रहे हैं कि आगामी चुनाव में जीत का सेहरा उनके ही सिर बंधेगा लेकिन महाराष्ट्र का सियासी सफरनामा बताना है कि कौन कितने पानी में है। इस सब के लिए ज्यादा पीछे जाने की भी जरूरत नहीं है। सिर्फ 2009 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालें तो समझ में आता है कि इनके दावों में कितना दम है।
2009 में साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर भाजपा-शिवसेना गठबंधन में भाजपा ने 119 सीटों पर ताल ठोकी तो शिवसेना ने 160 सीटों पर अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे। लेकिन भाजपा 119 में से महज 46 सीटों पर ही फतह हासिल कर पाई तो शिवसेना तो 160 सीटों में से सिर्फ 44 पर ही जीत दर्ज कर पाई। ये वो आईना है जो 2009 में जनता ने भाजपा और शिवसेना को दिखाया था। अब जरा नजर जीत की शेखी बघार रहे कांग्रेस और एनसीपी पर भी डाल लेते हैं। 2009 में कांग्रेस और एनसीपी ने मिलकर सरकार जरूर बनाई लेकिन चुनाव लड़ने वाली सीटों की संख्या की तुलना में जीतने वाली सीटों की संख्या का अंतर अच्छा खासा था। 170 सीटों पर लड़ते हुए कांग्रेस 82 सीटें जीत पाई तो 113 सीटों पर लड़ने वाली एनसीपी 62 सीटों पर। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव लड़ने वाला कोई भी राजनीतिक दल सभी सीटों पर जीत दर्ज कर पाए लेकिन लड़ने और जीतने वाली सीटों में अंतर की संख्या जब ज्यादा हो तो समझ लेना चाहिए कि स्थितियां बहुत ज्यादा उनके पक्ष में नहीं रहीं। रहीं होती तो शायद ये अंतर अपेक्षाकृत कम होता। महज 10 से 15 सीटों के लिए ऐसे वक्त पर लड़ना, जब चुनाव की तारीखें सिर पर हों, तो इसे कहीं से समझदारी नहीं कहा जा सकता, फिर चाहे वो भाजपा-शिवसेना हों या फिर कांग्रेस-एनसीपी। 10-15 सीटों का झमेला छोड़ आपसी समझ से शायद ये अपने चुनावी कैंपेन पर ध्यान लगाते तो शायद जीतने वाली सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब हो सकते थे, लेकिन चंद सीटों के लिए इस तरह लड़ना कहीं न कहीं अपने ही पैर में कुल्हाड़ी मारने सरीखा है। जाहिर है मतभेद और मनभेद के बाद अलग – अलग चुनाव लड़ना न तो भाजपा-शिवसेना के लिए फायदेमंद हैं और न ही कांग्रेस – एनसीपी के लिए। वो भी ऐसे राज्य में जहां पर ये चारों ही राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं के लिए नई नहीं हैं और अच्छी खासी पैठ भी रखती हैं। (जरूर पढ़ें – भाजपा – खुमारी अभी बाकी है !)
निश्चित तौर पर दोनों ही गठबंधनों का टूटना इन सियासी दलों के साथ ही महाराष्ट्र की जनता के लिए भी शुभ संकेत नहीं है। मतलब साफ है कि 288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में अलग – अलग लड़ने की स्थिति में पूर्ण बहुत पाना किसी भी दल के लिए लगभग नामुमकिन होगा। नतीजा त्रिशंकु विधानसभा होगी महाराष्ट्र की जनता को एक और चुनाव का सामना करना पड़ेगा, जिसका मतलब करोड़ों रूपए का बोझ किसी न किसी कर के रूप में जनता के सिर ही थोपा जाएगा।
दरअसल इस चुनाव में असल परीक्षा महाराष्ट्र की जनता की भी है कि वे किसी एक दल को चुनकर स्थाई सरकार का निर्माण करने की ओर कदम बढ़ाते हैं, या फिर अपने निजी हितों को साधने के लिए आपस में ही भिड़ने वाले इन सियासी दलों के नेताओं पर भरोसा करते हुए जाति और संप्रदाय के आधार पर वोट करते हुए महाराष्ट्र को एक और चुनाव की ओर धकेलती है। बहरहाल सीटों के बंटवारे को लेकर नूरा कुश्ती जारी है, देखना ये होगा कि ये नूरा कुश्ती कहां पर जाकर थमती है।
deepaktiwari555@gmail.com
Read Comments