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वर्तमान समय में महिला सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ी है…महिलाओं की सुरक्षा के लिए कड़े कानून बनाने के साथ ही उन्हें समान अधिकार दिलाने की मांग उठ रही है। एक आवाज इसके पक्ष में उठ रही है तो एक इसके विरोध में। विरोध में उठने वाले स्वर कह रहे हैं कि महिलाओं के लिए अधिकारियों और स्वतंत्रता की मांग करना उन्हें पुरुषों के अधीन घोषित करता है..! समाज में महिलाओं की स्थिति की अगर बात करें तो ये इस बात को नकारा नहीं जा सकता है कि महिलाओं ने समाज के बेडियों को तोड़कर विश्व जगत में अपना परचम फरहाया है।
महिलाओं ने अंतरिक्ष से माउंट एवरेस्ट तक परचम फहराया है तो राजनीति से लेकर कॉरपरेट सेक्टर में महिलाएं पुरुषों से लोहा ले रही हैं। लेकिन इसके बाद भी औसतन महिलाओं की स्थिति समाज में आज भी दयनीय है। महिलाओं का नाम कमाना और समाज की बेड़ियों को तोड़कर आगे बढ़कर पुरुषों को चुनौती देना सिक्के का सिर्फ एक पहलू है
सिक्के का दूसरा पहलू वो कड़वा सच है जिसे हम चाहकर भी नहीं नकार सकते। महिलाओं को आज भी घर में रखा एक सामान ही समझा जाता है जो घर का सारा कामकाज करे, परिवार को खाना बनाकर खिलाए और अपने पति की सेवा कर..! सिर्फ इतना ही होता तो ठीक था लेकिन महिलाओं के सबसे चिंताजनक चीज ये है कि इस सब के बाद भी वे घरेलु हिंसा का सर्वाधिक शिकार होती हैं..! शराबी पति की मार हो या फिर दहेज के लिए उसे जला देना…ये घटनाएं आए दिन अखबारों और समाचार चैनलों की सुर्खियां बनती रहती हैं..!
महिलाएं अपराधियों के लिए आज भी सॉफ्ट टारगेट है और अपनी हवस की भूख मिटाने के लिए अपराधी महिलाओं को ही निशाना बनाते हैं जो महिला के जीवन को नर्क बना देता है। साल 2011 में हुई बालात्कार की 24 हजार 206 घटनाएं इस हकीकत पर से पर्दा उठाने के लिए काफी हैं।
घर से लेकर दफ्तर तक महिलाएं उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं ऐसे में अगर महिलाओं के अधिकारों और स्वतंत्रता की मांग उठ रही है तो क्या गलत है..! महिलाएं तो पहले से ही पुरुषों के अधीन समझी जाती हैं ऐसे में उनके अधिकारों और स्वतंत्रता की मांग उन्हें पुरुषों के अधीन कैसे घोषित कर सकती है..? महिलाओं पुरुषों से कंधा से कंधा मिलाकर चल जरूर रही हैं लेकिन इनकी संख्या है कितनी..?
पुरुषों का ये पक्ष की वे महिलाओं के अधिकारों की बात इसलिए करते हैं क्योंकि वे महिलाओं को दमित वातावरण से मुक्ति दिलाना चाहते हैं ये समाज में बड़ी संख्या में महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए तो ठीक कहा जा सकता है लेकिन सवाल ये है कि क्या इस बात को कहने वाला हर पुरुष इसकी शुरुआत खुद से कर रहा है..?
क्या वो खुद महिलाओं को उत्पीड़न तो नही कर रहा है..?
क्या उसके घर में या उसके पड़ोस में उसके आस-पास किसी महिला का उत्पीड़न या शोषण तो नहीं हो रहा है..?
क्या उसने इसकी शुरुआत अपने घर से अपने पास- पड़ोस से की है..?
जाहिर है महिलाओं को दमित वातावरण से मुक्ति दिलाने का पुरूषों के तर्क सही तभी ठहराए जा सकते हैं जब वे खुद अपने पास-पड़ोस से इसकी शुरुआत कर चुके हों।
इसके पीछे एक और तर्क दिया जा रहा है कि महिलाएं समानता नहीं सम्मान की चाह रखती हैं। जाहिर है सम्मान की चाह हर किसी के मन में होती है चाहे वो पुरूष हो या महिला…चाहे वो सर्वोच्च पद पर बैठा हुआ व्यक्ति हो या फिर अंतिम पंक्ति में खड़ा हुआ कोई शख्स। हर कोई चाहता है कि उस पूरा सम्मान मिले। ऐसे में महिलाएं अगर सम्मान की चाह रख रही हैं तो क्या गलत है…? महिलाएं क्यों अपमान सहें..? महिलाएं क्यों पुरूषों के पैर की जूती समझी जाए..?
जहां तक समानता की बात है तो सदियों से महिला और पुरूष की अलग अलग भूमिका तय है जो हम देखते आए हैं। ऐसे में अगर कोई महिला समय के साथ पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है तो उसमें समानता की चाह जरूर उत्पन्न होगी…चाहे वो घर हो या फिर कार्यक्षेत्र।
deepaktiwari555@gmail.com
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