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नक्सली, आदिवासी…जवान और सवाल ?
बीते हफ्ते छत्तीसगढ़ में मारे गए 19 लोग नक्सली थे या आम आदिवासी इसको लेकर विवाद गहराने लगा है…सीआरपीएफ की इस कार्रवाई पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं…जबकि राज्य सरकार के साथ ही सीआरपीएफ ने इन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। अंग्रेजी के कई नामी अख़बारों के साथ ही बड़े समाचार चैनल भी जोर शोर से सीआरपीएफ की इस कार्रवाई पर सवाल तो खड़े कर रहे हैं…हो सकता है कि इन आरोपों में दम भी हो…और इसमें नक्सलियों के साथ ही कुछ आदिवासी भी मारे गए हों…लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली उन आदिवासियों में से ही हैं…जो आम आदिवासियों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं…और इस बात की किसी को कानों कान ख़बर तक नहीं होती कि ये आदिवासी ही असल में नकस्ली हैं। ये लोग इलाके में मौजूद पुलिस और सेना के जवानों की हर गतिविधी पर नज़र भी रखते हैं…और मौका मिलते ही उन्हें नुकसान पहुंचाने से भी नहीं चूकते हैं। बीते कुछ सालों में जवानों पर हुए नक्सली हमलों ने इस बात को और पुख्ता कर दिया है कि आदिवासियों के भेष में नक्सली गांवों में रह रहे हैं…औऱ जवानों के हर मूवमेंट पर वे नज़र भी रखते हैं। अप्रेल 2010 में दंतेवाड़ा में सीरपीएफ के 75 जवानों की मौत ने इस पर अपनी मुहर भी लगा दी थी कि नक्सलियों को जवानों की मूवमेंट की पूरी जानकारी थी और उन्होंने पूरी रणनीति के तहत सीआरपीएफ के जवानों में हमला कर 75 जवानों की जान ले ली। इसके बाद भी समय समय पर उन जगहों पर लैंड माइन से विस्फोट करना जहां से सीआरपीएफ जवानों का काफिला गुजरने वाला था…इस बात को साबित करने के लिए काफी है। लौटते हैं असल मुद्दे पर यानि बीते पखवाड़े मारे गए उन 19 लोगों पर जिस पर विवाद गहराने लगा है कि ये नक्सली थे कि आम आदिवासी। ये पहली बार नहीं हुआ है इससे पहले भी जब – जब नक्सली मारे गए हैं…सवाल खड़े किए जाते रहे हैं कि मारे गए लोग नक्सली नहीं थे…बल्कि आम आदिवासी थे…और देश के कुछ प्रतिष्ठित अंग्रेजी के अख़बार और कुछ बड़े समाचार चैनल बड़ी संजीदगी से इस मुद्दे तो हवा देते रहे हैं…और इसके साथ ही कुछ खास लोगों को प्रमोट करते रहे है। यहां पर इनका तर्क होता है कि वे लोग आम आदिवासी के साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज़ उठा रहे हैं…लेकिन यहां पर ये चीज समझ में नहीं आती कि जब नक्सली हमले में हमारे देश के वो जवान शहीद होते हैं…जो अपने परिवार को छोड़ सैंकड़ों – हजारों किलोमीटर दूर घोर नक्सल इलाकों में अपनी जान हथेली पर रखकर नौकरी कर रहे होते हैं…जहां पर उन्हें खुद नहीं पता होता कि कब उनकी जीवन की डोर थम जाएगी…और ऐसा होता है तो उस समय ये नामी गिरामी अख़बार और समाचार चैनल कहां चले जाते हैं…उस समय तो ये सिर्फ इस खबर को एक बार छापकर-दिखाकर इतिश्री कर लेते हैं। नक्सली हमलों में शहीद हुए इन जवानों के परिवार की सुध लेने की फुर्सत इन अखबारों औऱ समाचार चैनलों के पास नहीं होती है…कि वे कैसे किस स्थिति में हैं…हां ये सब अगर इन जवानों की नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई में होता है…तो इसके उल्ट ग्राइंड जीरो से रिपोर्टिंग का ढोल पीट पीटकर ये इन जवानों पर निर्दोषों की हत्या का दोष मढ़ते नहीं थकते हैं। बहरहाल छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ की नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हैं…लेकिन इससे पहले जब – जब नक्सलियों के हमले में जवान शहीद होते रहे हैं…तब – तब सिर्फ शोक संवेदना व्यक्त कर इस सब को भुला दिया जाता है…ऐसा क्यों इसका जबाव शायद सीआऱपीएफ की कार्रवाई पर हमेशा ऐसे सवाल उठाने वालों के पास नहीं होगा। बहरहाल इसको लेकर बहस जारी है देखते हैं ये कहां जाकर थमती है।
दीपक तिवारी
deepaktiwari555@gmail.com
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